कंकाल-अध्याय -२१
'इन खिलौनों'-कहते-कहते इसका हाथ देवविग्रह की ओर उठ गया था। उसके आक्षेपों का जो उत्तर निरंजन देना चाहता था, वह क्रोध के वेग में भूल गया और सहसा उसने कह दिया, 'नास्तिक! हट जा!' विजय की कनपटी लाल हो गयी, बरौनियाँ तन गयीं। वह कुछ बोलना ही चाहता था कि मंगल ने सहसा आकर हाथ पकड़ लिया और कहा, 'विजय!' विद्रोही वहाँ से हटते-हटते भी मंगल से यह कहे बिना नहीं रहा, धर्म के सेनापति विभीषिका उत्पन्न करके साधारण जनता से अपनी वृत्ति कमाते हैं और उन्हीं को गालियाँ भी सुनाते हैं, गुरुडम कितने दिनों तक चलेगा, मंगल?' मंगल विवाद को बचाने के लिए उसे घसीटता ले चला और कहने लगा, 'चलो, हम तुम्हारा शास्त्रार्थ-निमंत्रण स्वीकार करते हैं।' दोनों अपने कमरे की ओर चले गये। निरंजन पल भर में आकाश से पृथ्वी पर आ गया। वास्तविक वातावरण में क्षोभ और क्रोध, लज्जा और मानसिक दुर्बलता ने उसे चैतन्य कर दिया। निरंजन को उद्विग्न होकर उठते देख किशोरी, जो अब तक स्तब्ध हो रही थी, बोल उठी, 'लड़का है!' निरंजन ने वहाँ से जाते-जाते कहा, 'लड़का है तो तुम्हारा है, साधुओं को इसकी चिंता क्या?' उसे अब भी अपने त्याग पर विश्वास था। किशोरी निरंजन को जानती थी, उसने उन्हें रोकने का प्रयत्न नहीं किया। वह रोने लगी। मंगल ने विजय से कहा, 'तुमको गुरुजनों का अपमान नहीं करना चाहिए। मैंने बहुत स्वाधीन विचारों को काम में ले आने की चेष्टा की है, उदार समाजों में घूमा-फिरा हूँ; पर समाज के शासन-प्रश्न पर और असुविधाओं में सब एक ही से दिख पड़े। मैं समाज में बहुत दिनों तक रहा, उससे स्वतंत्र होकर भी रहा; पर सभी जगह संकीर्णता है, शासन के लिए; क्योंकि काम चलाना पड़ता है न! समाज में एक-से उन्नत और एक-सी मनोवृत्ति वाले मनुष्य नहीं, सबको संतुष्ट और धर्मशील बनाने के लिए धार्मिक समस्याएँ कुछ-न-कुछ उपाय निकाला करती हैं।' 'पर हिन्दुओं के पास निषेध के अतिरिक्त और भी कुछ है? यह मत करो, वह मत करो, पाप है। जिसका फल यह हुआ कि हिन्दुओं को पाप को छोड़कर पुण्य कहीं दिखलायी ही नहीं पड़ता।' विजय ने कहा। 'विजय! प्रत्येक संस्थाओं का कुछ उद्देश्य है, उसे सफल करने के लिए कुछ नियम बनाये जाते हैं। नियम प्रातः निषेधात्मक होते हैं, क्योंकि मानव अपने को सब कुछ करने का अधिकारी समझता है। कुल थोड़े-से सुकर्म है और पाप अधिक हैं; जो निषेध के बिना नहीं रुक सकते। देखो, हम किसी भी धार्मिक संस्था से अपना सम्बन्ध जोड़ लें, तो हमें उसकी कुछ परम्पराओं का अनुकरण करना ही पड़ेगा। मूर्तिपूजा के विरोधियों ने भी अपने-अपने अहिन्दू सम्प्रदायों में धर्म-भावना के केन्द्र स्वरूप कोई-न-कोई धर्म-चिह्न रख छोड़ा है। जिन्हें वे चूमते हैं, सम्मान करते हैं और उसके सामने सिर झुकाते हैं। हिन्दुओं ने भी अपनी भावना के अनुसार जन-साधारण के हृदय में भेदभाव करने का मार्ग चलाया है। उन्होंने मानव जीवन में क्रम-विकास का अध्ययन किया है। वे यह नहीं मानते कि हाथ-पैर, मुँह-आँख और कान समान होने से हृदय भी एक-सा होगा। और विजय! धर्म तो हृदय से आचरित होता है न, इसलिए अधिकार भेद है।' 'तो फिर उसमें उच्च विचार वाले लोगों को स्थान नहीं, क्योंकि समता और विषमता का द्वन्द्व उसके मूल में वर्तमान है।' 'उनसे तो अच्छा है, जो बाहर से साम्य की घोषणा करके भी भीतर से घोर विभिन्न मत के हैं और वह भी स्वार्थ के कारण! हिन्दू समाज तुमको मूर्ति-पूजा करने के लिए बाध्य नहीं करता, फिर तुमको व्यंग्य करने का कोई अधिकार नहीं। तुम अपने को उपयुक्त समझते हो, तो उससे उच्चतर उपासना-प्रणाली में सम्मिलित हो जाओ। देखो, आज तुमने घर में अपने इस काण्ड के द्वारा भयानक हलचल मचा दी है। सारा उत्सव बिगड़ गया है।' अब किशोरी भीतर चली गयी, जो बाहर खड़ी हुई दोनों की बातें सुन रही थी। वह बोली, 'मंगल ने ठीक कहा है। विजय, तुमने अच्छा काम नहीं किया। सब लोगों का उत्साह ठण्डा पड़ गया। पूजा का आयोजन अस्त-व्यस्त हो गया।' किशोरी की आँखें भर आयी थीं, उसे बड़ा क्षोभ था; पर दुलार के कारण विजय को वह कुछ कहना नहीं चाहती थी। मंगल ने कहा, 'माँ! विजय को साथ लेकर हम इस उत्सव को सफल बनाने का प्रयत्न करेंगे, आप अपने को दुःखी न कीजिये।' किशोरी प्रसन्न हो गयी। उसने कहा, 'तुम तो अच्छे लड़के हो। देख तो विजय! मंगल की-सी बुद्धि सीख!' विजय हँस पड़ा। दोनों देव मन्दिर की ओर चले। नीचे गाड़ी की हरहराहट हुई, मालूम हुआ निरंजन स्टेशन चला गया। उत्सव में विजय ने बड़े उत्साह से भाग लिया; पर यमुना सामने न आयी, तो विजय के सम्पूर्ण उत्साह के भीतर यह गर्व हँस रहा था कि मैंने यमुना का अच्छा बदला निरंजन से लिया। किशोरी की गृहस्थी नये उत्साह से चलने लगी। यमुना के बिना वह पल भर भी नहीं रह सकती। जिसको जो कुछ माँगना होता, यमुना से कहता। घर का सब प्रबन्ध यमुना के हाथ में था। यमुना प्रबन्धकारिणी और आत्मीय दासी भी थी। विजयचन्द्र के कमरे का झाड़-पोंछ और रखना-उठाना सब यमुना स्वयं करती थी। कोई दिन ऐसा न बीतता कि विजय को उसकी नयी सुरुचि का परिचय अपने कमरे में न मिलता। विजय के पान खाने का व्यसन बढ़ चला था। उसका कारण था यमुना के लगाये स्वादिष्ट पान। वह उपवन से चुनकर फूलों की माला बना लेती। गुच्छे सजाकर फूलदान में लगा देती। विजय की आँखों में उसका छोटे-से-छोटा काम भी कुतूहल मिश्रित प्रसन्नता उत्पन्न करता; पर एक बात से अपने को सदैव बचाती रही-उसने अपना सामना मंगल से न होने दिया। जब कभी परसना होता-किशोरी अपने सामने विजय और मंगल, दोनों को खिलाने लगती। यमुना अपना बदन समेटकर और लम्बा घूँघट काढ़े हुए परस जाती। मंगल ने कभी उधर देखने की चेष्टा भी न की, क्योंकि वह भद्र कुटुम्ब के नियमों को भली-भाँति जानता था। इसके विरुद्ध विजयचन्द्र ऊपर से न कहकर, सदैव चाहता कि यमुना से मंगल परिचित हो जाये और उसकी यमुना की प्रतिदिन की कुशलता की प्रकट प्रशंसा करने का अवसर मिले। विजय को इन दोनों रहस्यपूर्ण व्यक्तियों के अध्ययन का कुतूहल होता। एक ओर सरल, प्रसन्न, अपनी व्यवस्था से संतुष्ट मंगल, दूसरी ओर सबको प्रसन्न करने की चेष्टा करने वाली यमुना का रहस्यपूर्ण हँसी। विजय विस्मित था। उसके युवक-हृदय को दो साथी मिले थे-एक घर के भीतर, दूसरा बाहर। दोनों ही संयत भाव के और फूँक-फूँककर पैर रखने वाले! इन दोनों से मिल जाने की चेष्टा करता। एक दिन मंगल और विजय बैठे हुए भारतीय इतिहास का अध्ययन कर रहे थे। कोर्स तैयार करना था। विजय ने कहा, 'भाई मंगल! भारत के इतिहास में यह गुप्त-वंश भी बड़ा प्रभावशाली था; पर उसके मूल पुरुष का पता नही चलता।' 'गुप्त-वंश भारत के हिन्दू इतिहास का एक उज्ज्वल पृष्ठ है। सचमुच इसके साथ बड़ी-बड़ी गौरव-गाथाओं का सम्बन्ध है।' बड़ी गंभीरता से मंगल ने कहा। 'परन्तु इसके अभ्युदय में लिच्छिवियों के नाश का बहुत कुछ अंश है, क्या लिच्छिवियों के साथ इन लोगों ने विश्वासघात नहीं किया?' विजय ने पूछा। 'हाँ, वैसा ही उनका अन्त भी तो हुआ। देखो, थानेसर के एक कोने से एक साधारण सामन्त-वंश गुप्त सम्राटों से सम्बन्ध जोड़ लेने में कैसा सफल हुआ। और क्या इतिहास इसका साक्षी नहीं है कि मगध के गुप्त सम्राटों को बड़ी सरलता से उनके मानवीय पद से हटाकर ही हर्षवर्धन उत्तरा-पथेश्वर बन गया था। यह तो ऐसे ही चला करता है।' मंगल ने कहा।